जिस हुस्न की है चश्म-ए-तमन्ना को जुस्तुजू
वो आफ़्ताब में है न है माहताब में
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तुम्हारी याद में दुनिया को हूँ भुलाए हुए
जहाँ पे छाया सहाब-ए-मस्ती बरस रही है शराब-ए-मस्ती
ख़ुदा की देन है जिस को नसीब हो जाए
तेरे शबाब ने किया मुझ को जुनूँ से आश्ना
लुत्फ़ गुनाह में मिला और न मज़ा सवाब में
ज़ुल्मत-ए-दश्त-ए-अदम में भी अगर जाऊँगा
तुम्हारी फ़ुर्क़त में मेरी आँखों से ख़ूँ के आँसू टपक रहे हैं
आह क्या क्या आरज़ूएँ नज़्र-ए-हिरमाँ हो गईं
मिरी हर साँस को सब नग़्मा-ए-महफ़िल समझते हैं
इलाही कश्ती-ए-दिल बह रही है किस समुंदर में