इलाही कश्ती-ए-दिल बह रही है किस समुंदर में
निकल आती हैं मौजें हम जिसे साहिल समझते हैं
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ये हुस्न-ए-दिल-फ़रेब ये आलम शबाब का
जिस हुस्न की है चश्म-ए-तमन्ना को जुस्तुजू
तुम्हारी फ़ुर्क़त में मेरी आँखों से ख़ूँ के आँसू टपक रहे हैं
आह क्या क्या आरज़ूएँ नज़्र-ए-हिरमाँ हो गईं
सारी दुनिया से बे-नियाज़ी है
ख़ुदा की देन है जिस को नसीब हो जाए
ज़ुल्मत-ए-दश्त-ए-अदम में भी अगर जाऊँगा
सज्दे के दाग़ से न हुई आश्ना जबीं
रुमूज़-ए-मोहब्बत
तुम्हारी याद में दुनिया को हूँ भुलाए हुए
तेरे शबाब ने किया मुझ को जुनूँ से आश्ना