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रुमूज़-ए-मोहब्बत - असर सहबाई कविता - Darsaal

रुमूज़-ए-मोहब्बत

1

जब आँख खोल के देखा तो हो गया मस्तूर

ये मेरा दीदा-ए-बीना ही इक हिजाब हुआ

तू छुप गया मह ओ अंजुम में लाला-ओ-गुल में

हर एक जल्वा-ए-रंगीं तिरा नक़ाब हुआ

जब आँख बंद हुई तू ही जल्वा-आरा था

2

मिरी ज़बान खुली शरह-ए-आशिक़ी के लिए

मिरा बयाँ था मुरक़्क़ा मिरी ख़जालत का

हर एक हर्फ़ में था ग़ैरियत का अफ़्साना

मिरी ज़बाँ ने किया ख़ूँ मिरी मोहब्बत का

मिरे सुकूत में तूफ़ान-ए-इश्क़ बरपा था

3

मिरे हवास रहे तेरे वस्ल में हाइल

जो बे-ख़ुदी में हुआ ग़र्क़ तू मिला मुझ को

अजीब शय है मोहब्बत में ख़ुद-फ़रामोशी

फ़ना हुआ तो मिली लज़्ज़त-ए-बक़ा मुझ को

मिरा वजूद ही ऐ दोस्त एक पर्दा था

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