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लुत्फ़ गुनाह में मिला और न मज़ा सवाब में - असर सहबाई कविता - Darsaal

लुत्फ़ गुनाह में मिला और न मज़ा सवाब में

लुत्फ़ गुनाह में मिला और न मज़ा सवाब में

उम्र तमाम कट गई काविश-ए-एहतिसाब में

तेरे शबाब ने किया मुझ को जुनूँ से आश्ना

मेरे जुनूँ ने भर दिए रंग तिरी शबाब में

आह ये दिल कि जाँ-गुदाज़ जोशिश-ए-इज़्तिराब है

हाए वो दौर जब कभी लुत्फ़ था इज़्तिराब में

क़ल्ब तड़प तड़प उठा रूह लरज़ लरज़ गई

बिजलियाँ थीं भरी हुई ज़मज़मा-ए-रुबाब में

चर्ख़ भी मय-परस्त है बज़्म-ए-ज़मीं भी मस्त है

ग़र्क़-ए-बुलंद-ओ-पस्त है जल्वा-ए-माहताब में

मेरे लिए अजीब हैं तेरी ये मुस्कुराहटें

जाग रहा हूँ या तुझे देख रहा हूँ ख़्वाब में

मेरे सुकूत में निहाँ है मिरे दिल की दास्ताँ

झुक गई चश्म-ए-फ़ित्ना-ज़ा डूब गई हिजाब में

लज़्ज़त-ए-जाम-ए-जम कभी तल्ख़ी-ए-ज़हर-ए-ग़म कभी

इशरत-ए-ज़ीस्त है 'असर' गर्दिश-ए-इंक़िलाब में

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