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वो उन का हिजाब और नज़ाकत के नज़ारे - असर रामपुरी कविता - Darsaal

वो उन का हिजाब और नज़ाकत के नज़ारे

वो उन का हिजाब और नज़ाकत के नज़ारे

आए वो शब-ए-वादा तसव्वुर के सहारे

वो काली घटा और वो बढ़ते हुए धारे

ज़ाहिद भी अगर देखे तो साक़ी को पुकारे

वो जल्वा-गाह-ए-नाज़ वो मख़मूर निगाहें

अब क्या कहूँ ये लम्हे कहाँ मैं ने गुज़ारे

ख़ुद हुस्न का मेआर निरा ज़ौक़-ए-नज़र हैं

उतने ही हसीं आप हैं जितने मुझे प्यारे

बे-वज्ह नहीं हुस्न की तनवीर में ताबिश

वो देते हैं ख़ाकिस्तर-ए-उल्फ़त के शरारे

तुम चाहो तो दो लफ़्ज़ों में तय होते हैं झगड़े

कुछ शिकवे हैं बेजा मिरे कुछ उज़्र तुम्हारे

फिर जाम-ब-कफ़ हो गई हर चीज़ 'असर' आज

याद आ गए फिर मध्-भरी आँखों के इशारे

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