जो आप कहें उस में ये पहलू है वो पहलू
और हम जो कहें बात में वो बात नहीं है
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बहाना मिल न जाए बिजलियों को टूट पड़ने का
नवेद-ए-वस्ल-ए-यार आए न आए
इधर से आज वो गुज़रे तो मुँह फेरे हुए गुज़रे
बहार है तिरे आरिज़ से लौ लगाए हुए
इश्क़ से लोग मना करते हैं
क्या क्या दुआएँ माँगते हैं सब मगर 'असर'
कुछ देर फ़िक्र आलम-ए-बाला की छोड़ दो
किस तरह खिलते हैं नग़्मों के चमन समझा था मैं
दिल गया बे-क़रारियाँ न गईं
आख़िर-ए-कार यही उज़्र जफ़ा का निकला
तस्कीन-ए-दिल को अश्क-ए-अलम क्या बहाऊँ मैं
काहे को ऐसे ढीट थे पहले झूटी क़सम जो खाते तुम