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किस तरह खिलते हैं नग़्मों के चमन समझा था मैं - असर लखनवी कविता - Darsaal

किस तरह खिलते हैं नग़्मों के चमन समझा था मैं

किस तरह खिलते हैं नग़्मों के चमन समझा था मैं

साज़-ए-हस्ती पर तुझे जब ज़ख़्मा-ज़न समझा था मैं

क्या ख़बर थी हम-नवा हो जाएँगे सय्याद के

बाग़ का अपने जिन्हें सर्व-ओ-समन समझा था मैं

क़ैदी-ए-बे-ख़ानुमाँ ज़िंदाँ से छूटे भी अगर

और कुछ बढ़ जाएँगे रंज-ओ-मेहन समझा था मैं

ताबे-ए-गर्दिश हैं किस के इन्क़िलाबात-ए-जहाँ

क्या कहेगी तेरी चश्म-ए-पुर-फ़ितन समझा था मैं

इस तरह दिल चाक होता है न यूँ टुकड़े जिगर

लाला-ओ-गुल हैं तिरे ख़ून-ए-कफ़न समझा था मैं

तो मिला जिस को उसे क्या जान ओ तन से वास्ता

तफ़रक़ा था जिस को रब्त-ए-जान-ओ-तन समझा था मैं

हक़्क़-ओ-बातिल का 'असर' मिटने लगा जब इम्तियाज़

ताज़ा होगा क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन समझा था मैं

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