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झपकी ज़रा जो आँख जवानी गुज़र गई - असर लखनवी कविता - Darsaal

झपकी ज़रा जो आँख जवानी गुज़र गई

झपकी ज़रा जो आँख जवानी गुज़र गई

बदली की छाँव थी इधर आई उधर गई

मश्शाता-ए-बहार अजब गुल कतर गई

मुँह-बंद जो कली थी खिली और सँवर गई

पेश-ए-जमाल-ए-यार किरन आफ़्ताब की

शर्मा के चाहती थी कि पलटे बिखर गई

मल के भभूत चेहरे पे तारों की छाँव का

धोनी रमाए दर पे ये किस के सहर गई

क्या जाने आँख मार के क्या कह गई शफ़क़

फूलों की गोद मौज-ए-नसीम आ के भर गई

सीने में और ताब दे शोले को शौक़ के

सज्दा ग़लत अगर न तजल्ली निखर गई

तेरी ही जल्वा-ज़ार है दुनिया-ए-रंग-ओ-बू

ऐ वाए वो नज़र जो हिजाबात पर गई

अब हाथ मलते हैं कि दम-ए-अर्ज़-ए-माजरा

कहने की बात ध्यान से कैसी उतर गई

कुछ दिन की और कश्मकश-ए-ज़ीस्त है 'असर'

अच्छी बुरी गुज़रनी थी जैसी गुज़र गई

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