आख़िर-ए-कार यही उज़्र जफ़ा का निकला

आख़िर-ए-कार यही उज़्र जफ़ा का निकला

जुर्म और जुर्म भी इक उम्र-ए-वफ़ा का निकला

ओस में डूब के जिस तरह निखरता है गुलाब

शर्म से और सिवा हुस्न अदा का निकला

क्या करी है कि जब दर पे तिरे आ बैठा

आस्तीं से न कभी हाथ गदा का निकला

जो दुआ माँगी है औरों ही की ख़ातिर माँगी

हौसला आज मिरे दस्त-ए-दुआ का निकला

शौक़-ए-मंज़िल ही लिए उठ गए जाने वाले

आश्ना एक न आवाज़-ए-दरा का निकला

जब तू ही तू है तो फिर ग़ैब ओ हुज़ूरी कैसी

एक ही रंग बक़ा और फ़ना का निकला

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