आह से जब दिल में डूबे तीर उभारे जाएँगे

आह से जब दिल में डूबे तीर उभारे जाएँगे

देख लेना दूर तक उड़ कर शरारे जाएँगे

मौज-ए-तूफ़ाँ को जिन्हों ने चीरना सीखा नहीं

इस किनारे से भला क्या उस किनारे जाएँगे

उतनी ही रंगीन होती जाएगी अपनी नज़र

जिस क़दर तेरे तसव्वुर को सँवारे जाएँगे

कुछ न कुछ हो ही रहेगा दर्द-मंदी का मआल

जान के दुश्मन तुझी को हम पुकारे जाएँगे

ख़ाक हो कर भी न आएगा उन्हें दम भर क़रार

उठ के तेरे दर से जो आफ़त के मारे जाएँगे

एक हर्फ़-ए-दिल-नशीं! ये भी नहीं तो इक निगाह

दूर जाने वाले क्यूँ-कर बे-सहारे जाएँगे

बैठे साहिल पर गिना करते हैं जो लहरें 'असर'

वक़्त पड़ने पर भला क्या धारे धारे जाएँगे

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