नौ मंज़िला बिल्डिंग
ज़मीं का रक़्स-ए-पैहम सर्द लोहे की नुकीली कील, ज़ंजीर-ए-कशिश, शाने
और इक नौ मंज़िला बिल्डिंग
और इस नौ मंज़िला बिल्डिंग को अपने ना-तवाँ शानों की बाक़ी-माँदा क़ुव्वत से सँभाले
इस फ़सुर्दा शहर की सब से बड़ी फ़ुट-पाथ पर टांगें पसारे
हर गुज़रते वाहिमे को तकने वाला मैं
ये बर्फ़ीली हवा थी या कोई लम्हा
सबा-रफ़्तार लम्हा बर्क़-दम लम्हा
जो मेरी उँगलियों के दरमियाँ से ख़्वाब की मानिंद गुज़रा
क्या मुरूर-ए-वक़्त जारी है?
मिरे लाग़र बदन में कौन नाख़ुन गाड़ता है?
क्यूँ ज़मीं यख़-बस्ता ज़ंबूरों में मेरे पाँव जकड़े है
मैं आख़िर कौन हूँ? मैं कौन हूँ? और नाम....
मेरा नाम क्या है? क्या मैं ज़िंदा हूँ?
मैं ज़िंदा हूँ मैं ज़िंदा हूँ मैं अपनी चीख़ सुन सकता हूँ
''इक पल के लिए ठहरो बस इक पल के लिए ठहरो
कि इस नौ मंज़िला बिल्डिंग से अपने ना-तवाँ शानों को मैं आज़ाद तो कर लूँ''
मैं कहता हूँ मैं सुनता हूँ
मगर वो गुरेज़-पा लम्हा हवा के दोश पर उड़ता चला जाता है ये नौ मंज़िला बिल्डिंग
मिरे मालिक मैं तन्हा हूँ मैं तन्हा हूँ
मिरी जानिब बड़े बे-रहम सन्नाटों में लिपटी शाम बढ़ती आ रही है मैं गिरा जाता हूँ
बोलो! क्या मैं लम्हों की अयालें अपनी मुट्ठी में जकड़ लूँ?
क्या मैं इस नौ मंज़िला बिल्डिंग को अपने ना-तवाँ शानों से नीचे फेंक दूँ
उठ कर खड़ा हो जाऊँ
मगर मैं ने....
मगर मैं ने तो इस नौ मंज़िला बिल्डिंग की ख़ातिर नाख़ुनों से नीव खोदी थी
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