सिर्फ़ कहने को कोई अज़्मत-निशाँ बनता नहीं
सिर्फ़ कहने को कोई अज़्मत-निशाँ बनता नहीं
चंद क़तरों से तो बहर-ए-बे-कराँ बनता नहीं
चार छे फूलों से अपने घर का गुलदस्ता सजा
चार छे फूलों से हरगिज़ गुलिस्ताँ बनता नहीं
कारवाँ का पास है तुझ को तो पानी पर न चल
ये वो जादा है जहाँ कोई निशाँ बनता नहीं
बे-सर-ओ-सामाँ परिंदो काश तुम ये सोचते
कौन सी शाख़ें हैं जिन पर आशियाँ बनता नहीं
किस क़दर ना-क़ाबिल-ए-इदराक है मेरी ज़बाँ
कोई इस बस्ती में मेरा हम-ज़बाँ बनता नहीं
(1018) Peoples Rate This