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रवाँ है क़ाफ़िला-ए-जुस्तुजू किधर मेरा - असद जाफ़री कविता - Darsaal

रवाँ है क़ाफ़िला-ए-जुस्तुजू किधर मेरा

रवाँ है क़ाफ़िला-ए-जुस्तुजू किधर मेरा

कोई समझ न सका मक़्सद-ए-सफ़र मेरा

सुकून-ए-रूह मिला हल्क़ा-ए-रसन में मुझे

वगरना बार-ए-गराँ था बदन पे सर मेरा

मैं अपने हाथ के छाले दिखाता फिरता हूँ

दिलाए कोई मुझे हिस्सा-ए-समर मेरा

हर इक शजर है मिरा यूँ तो सारे जंगल में

अजब सितम है नहीं साया-ए-शजर मेरा

कहो ये अब्र से क्या फ़ाएदा बरसने का

कि अब तो जल भी चुका है तमाम घर मेरा

इसी लिए मिरी मंज़िल न मिल सकी मुझ को

कि मेरे साथ इक रहज़न था हम-सफ़र मेरा

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