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कोई दिल-जूई नहीं थी कोई शुनवाई न थी - असद जाफ़री कविता - Darsaal

कोई दिल-जूई नहीं थी कोई शुनवाई न थी

कोई दिल-जूई नहीं थी कोई शुनवाई न थी

जैसे अहल-ए-शहर से मेरी शनासाई न थी

मुझ को इक चुप-चाप से चेहरे ने ज़ख़्मी कर दिया

मैं ने ऐसी चोट सारी ज़िंदगी खाई न थी

ग़ौर से देखें तो है यादों के रंगों का कमाल

इस क़दर दिलकश कभी तस्वीर-ए-तन्हाई न थी

कर दिया जिस ने मुझे फिर ज़िंदगी से हम-कनार

था मिरा ज़ौक़-ए-यक़ीं तेरी मसीहाई न थी

बाग़बाँ की इक ज़रा सी लग़्ज़िश-ए-तरतीब से

मौसम-ए-गुल था मगर गुलशन में रानाई न थी

जिन से थी इंसाफ़ की उम्मीद अहल-ए-दर्द को

ग़ौर से देखा तो उन आँखों में बीनाई न थी

ना-ख़ुदा मुझ को अपाहिज कर गया वर्ना 'असद'

आसमाँ ऊँचा न था दरिया में गहराई न थी

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