ये ताएरों की क़तारें किधर को जाती हैं
न कोई दाम बिछा है कहीं न दाना है
Gulzar
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जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
हवा के अपने इलाक़े हवस के अपने मक़ाम
सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे
चमन वही कि जहाँ पर लबों के फूल खिलें
तकल्लुफ़ात की नज़्मों का सिलसिला है सिवा
उस अब्र से भी क़बाहत ज़ियादा होती है
शाख़ से फूल से क्या उस का पता पूछती है
ख़ुशी भी अब सरापा ग़म लगे है
तलब की राहों में सारे आलम नए नए से
कभी मौज-ए-ख़्वाब में खो गया कभी थक के रेत पे सो गया
हम अहल-ए-ख़ौफ़