सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ
तिरा फ़साना तुझी को सुनाता रहता हूँ
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देखने के लिए सारा आलम भी कम
वो एक नाम जो दरिया भी है किनारा भी
शाख़ से फूल से क्या उस का पता पूछती है
ये जो शाम ज़र-निगार है
वो सारी बातें मैं अहबाब ही से कहता हूँ
लेता नहीं किसी का पस-ए-मर्ग कोई नाम
जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है
जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं
हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे
एक नज़्म
सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं