फूलों की ताज़गी ही नहीं देखने की चीज़
काँटों की सम्त भी तो निगाहें उठा के देख
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आते हैं बर्ग-ओ-बार दरख़्तों के जिस्म पर
रास्ता कोई सफ़र कोई मसाफ़त कोई
बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे
ख़ुशी भी अब सरापा ग़म लगे है
गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
परिंद पेड़ से परवाज़ करते जाते हैं
बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है
तल्ख़ियाँ
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है