परिंद पेड़ से परवाज़ करते जाते हैं
कि बस्तियों का मुक़द्दर बदलता जाता है
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रौशनी में किस क़दर दीवार-ओ-दर अच्छे लगे
हवा दरख़्तों से कहती है दुख के लहजे में
पुराने घर की शिकस्ता छतों से उकता कर
तकल्लुफ़ात की नज़्मों का सिलसिला है सिवा
अजब दिन थे कि इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था
जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
ख़ुशी भी अब सरापा ग़म लगे है
बहुत से लोगों को मैं भी ग़लत समझता हूँ
सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
वहाँ भी मुझ को ख़ुदा सर-बुलंद रखता है
हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर