मोहब्बतें भी उसी आदमी का हिस्सा थीं
मगर ये बात पुराने ज़माने वाली है
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गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
हरीफ़ कोई नहीं दूसरा बड़ा मेरा
मिरी अना मिरे दुश्मन को ताज़ियाना है
मुझे भी वहशत-ए-सहरा पुकार मैं भी हूँ
आते हैं बर्ग-ओ-बार दरख़्तों के जिस्म पर
मिरे बदन पे ज़मानों की ज़ंग है लेकिन
सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
हवा के अपने इलाक़े हवस के अपने मक़ाम
ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
हम अहल-ए-ख़ौफ़
ये लोग ख़्वाब बहुत कर्बला के देखते हैं