मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
आदमी हूँ सो बहुत ख़्वाब हैं मेरे अंदर
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उस अब्र से भी क़बाहत ज़ियादा होती है
लेता नहीं किसी का पस-ए-मर्ग कोई नाम
सच बोल के बचने की रिवायत नहीं कोई
जब तलक आज़ाद थे हर इक मसाफ़त थी वबाल
वो एक नाम जो दरिया भी है किनारा भी
रास्ता कोई सफ़र कोई मसाफ़त कोई
परिंद क्यूँ मिरी शाख़ों से ख़ौफ़ खाते हैं
ख़ुशी भी अब सरापा ग़म लगे है
यही नहीं कि मिरा घर बदलता जाता है
मिरे लोग ख़ेमा-ए-सब्र में मिरे शहर गर्द-ए-मलाल में
कोई हमदम नहीं दुनिया में लेकिन
मिरे बदन पे ज़मानों की ज़ंग है लेकिन