जब तलक आज़ाद थे हर इक मसाफ़त थी वबाल
जब पड़ी ज़ंजीर पैरों में सफ़र अच्छे लगे
Javed Akhtar
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सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
मिरी अना मिरे दुश्मन को ताज़ियाना है
वक़्त इक दरिया है दरिया सब बहा ले जाएगा
उस अब्र से भी क़बाहत ज़ियादा होती है
जो लोग रातों को जागते थे
सैल-ए-गिर्या का सीने से रिश्ता बहुत
ये ताएरों की क़तारें किधर को जाती हैं
जम गई धूल मुलाक़ात के आईनों पर
ये लोग ख़्वाब बहुत कर्बला के देखते हैं
मोहब्बतें भी उसी आदमी का हिस्सा थीं
आते हैं बर्ग-ओ-बार दरख़्तों के जिस्म पर
तकल्लुफ़ात की नज़्मों का सिलसिला है सिवा