गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
एक ही रंग है दुनिया को जिधर से देखा
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आते हैं बर्ग-ओ-बार दरख़्तों के जिस्म पर
हवा के पास बस इक ताज़ियाना होता है
जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं
बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे
मिरे लोग ख़ेमा-ए-सब्र में मिरे शहर गर्द-ए-मलाल में
मिरे बदन पे ज़मानों की ज़ंग है लेकिन
मुझे भी वहशत-ए-सहरा पुकार मैं भी हूँ
फूलों की ताज़गी ही नहीं देखने की चीज़
ख़ुशी भी अब सरापा ग़म लगे है
परिंद क्यूँ मिरी शाख़ों से ख़ौफ़ खाते हैं
हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे
मौसम-ए-हिज्र तो दाइम है न रुख़्सत होगा