देखने के लिए सारा आलम भी कम
चाहने के लिए एक चेहरा बहुत
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अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है
जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
तलब की राहों में सारे आलम नए नए से
हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे
कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है
वो एक नाम जो दरिया भी है किनारा भी
वहाँ भी मुझ को ख़ुदा सर-बुलंद रखता है
ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
मिरे शजर तुझे मौसम नया बनाते रहें
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
कभी मौज-ए-ख़्वाब में खो गया कभी थक के रेत पे सो गया