चश्म-ए-इंकार में इक़रार भी हो सकता था
छेड़ने को मुझे फिर मेरी अना पूछती है
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गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे
वहाँ भी मुझ को ख़ुदा सर-बुलंद रखता है
परिंद पेड़ से परवाज़ करते जाते हैं
चमन वही कि जहाँ पर लबों के फूल खिलें
तलब की राहों में सारे आलम नए नए से
बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है
पोशीदा क्यूँ है तूर पे जल्वा दिखा के देख
फूलों की ताज़गी ही नहीं देखने की चीज़
रौशनी में किस क़दर दीवार-ओ-दर अच्छे लगे
जो लोग रातों को जागते थे