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अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है - असअ'द बदायुनी कविता - Darsaal

अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है

अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है

जमाव दोनों महाज़ों पे लश्करों का है

किसी ख़याल किसी ख़्वाब के सिवा क्या हैं

वो बस्तियाँ कि जहाँ सिलसिला घरों का है

उफ़ुक़ पे जाने ये क्या शय तुलू होती है

समाँ अजीब पुर-असरार पैकरों का है

ये शहर छोड़ के जाना भी मारका होगा

अजीब रब्त इमारत से पत्थरों का है

वो एक फूल जो बहता है सतह-ए-दरिया पर

उसे ख़बर है कि क्या दुख शनावरों का है

उतर गया है वो दरिया जो था चढ़ाओ पर

बस अब जमाव किनारों पे पत्थरों का है

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