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ख़ुदी की फ़ितरत-ए-ज़र्रीं के राज़-हा-ए-दरूँ - आरज़ू सहारनपुरी कविता - Darsaal

ख़ुदी की फ़ितरत-ए-ज़र्रीं के राज़-हा-ए-दरूँ

ख़ुदी की फ़ितरत-ए-ज़र्रीं के राज़-हा-ए-दरूँ

अदा-शनास हक़ीक़त मिले कोई तो कहूँ

ख़ुदी अगर है तो हैं सुर्ख़-रू हयात-ओ-ममात

ख़ुदी नहीं तो हयात-ओ-ममात ख़ार-अो-ज़बूँ

ख़ुदी वो चीज़ है नादाँ कि जिस के बदले में

मिले जो दौलत-ए-कौनैन भी मुझे तो न लूँ

अलामतें हैं ये सब एक मर्द-ए-कामिल की

ख़ुलूस-ए-रूह ओ यक़ीन-ए-तमाम ओ सोज़-ए-दरूँ

समझ सका न समझ कर भी आज तक कोई

ये आब-ओ-गिल का फ़साना ये आब-ओ-गिल का फ़ुसूँ

मिरी नज़र में है राज़-ए-दरून-ए-मय-ख़ाना

मगर ये सोच रहा हूँ कहूँ तो किस से कहूँ

जिन्हें तलाश-ए-सुकूँ है उन्हें ये क्या मालूम

कि एक महशर-ए-ख़ामोश है जहान-ए-सुकूँ

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