वाए ग़ुर्बत कि हुए जिस के लिए ख़ाना-ख़राब
सुन के आवाज़ भी घर से न वो बाहर निकला
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तलाश-ए-रंग में आवारा मिस्ल-ए-बू हूँ मैं
वफ़ा तुम से करेंगे दुख सहेंगे नाज़ उठाएँगे
ख़मोशी मेरी मअनी-ख़ेज़ थी ऐ आरज़ू कितनी
देखें महशर में उन से क्या ठहरे
है मोहब्बत ऐसी बंधी गिरह जो न एक हाथ से खुल सके
इस पार से यूँ डूब के उस पार गए
हमारी नाकामी-ए-वफ़ा ने ज़माने की खोल दी हैं आँखें
कुछ मैं ने कही है न अभी उस ने सुनी है
जज़्ब-ए-निगाह-ए-शोबदा-गर देखते रहे
मुझे रहने को वो मिला है घर कि जो आफ़तों की है रहगुज़र
ख़ाली न अंदलीब का सोज़-ए-नफ़स गया
मासूम नज़र का भोला-पन ललचा के लुभाना क्या जाने