फैल गई बालों में सपेदी चौंक ज़रा करवट तो बदल
शाम से ग़ाफ़िल सोने वाले देख तो कितनी रात रही
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करम उन का ख़ुद है बढ़ कर मिरी हद्द-ए-इल्तिजा से
क़ुर्बत बढ़ा बढ़ा कर बे-ख़ुद बना रहे हैं
किस काम की ऐसी सच्चाई जो तोड़ दे उम्मीदें दिल की
देखें महशर में उन से क्या ठहरे
हाँ दीद का इक़रार अगर हो तो अभी हो
कुछ कहते कहते इशारों में शर्मा के किसी का रह जाना
हद से टकराती है जो शय वो पलटती है ज़रूर
किस गुल की बू है दामन-ए-दिल में बसी हुई
वो हाथ मार पलट कर जो कर दे काम तमाम
कम न थी तेग़ से अदा-ए-ख़िराम
सीने में ज़ब्त-ए-ग़म से छाला उभर रहा है
निगाहें इस क़दर क़ातिल कि उफ़ उफ़