निगाहें इस क़दर क़ातिल कि उफ़ उफ़
अदाएँ इस क़दर प्यारी कि तौबा
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चटकी जो कली कोयल कूकी उल्फ़त की कहानी ख़त्म हुई
वो बन कर बे-ज़बाँ लेने को बैठे हैं ज़बाँ मुझ से
बरसों भटका किया और फिर भी न उन तक पहुँचा
न कर तलाश-ए-असर तीर है लगा न लगा
भोली बातों पे तेरी दिल को यक़ीं
ख़िज़ाँ का भेस बना कर बहार ने मारा
जितना था सरगर्म-ए-कार उतना ही दिल नाकाम था
हर नफ़स इक शराब का हो घूँट
कहीं सर पटकते दीवाने कहीं पर झुलसते परवाने
तेरे तो ढंग हैं यही अपना बना के छोड़ दे
आराम के थे साथी क्या क्या जब वक़्त पड़ा तो कोई नहीं
हर साँस है इक नग़्मा हर नग़्मा है मस्ताना