नाम मंसूर का क़िस्मत ने उछाला वर्ना
है यहाँ कौन सा हक़-गो कि सर-ए-दार नहीं
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दिल में याद-ए-बुत-ए-बे-पीर लिए बैठा हूँ
जवाब देने के बदले वो शक्ल देखते हैं
मिरे जोश-ए-ग़म की है अजब कहानी
एक दिल पत्थर बने और एक दिल बन जाए मोम
नाले हैं दिलसिताँ तो फिर आहें हैं बर्छियाँ तो फिर
शौक़ चढ़ती धूप जाता वक़्त घटती छाँव है
वो क़िस्सा-ए-दर्द-आगीं चुप कर दिया था जिस ने
वफ़ा तुम से करेंगे दुख सहेंगे नाज़ उठाएँगे
ख़ाली बैठे क्यूँ दिन काटें आओ रे जी इक काम करें
आँख से दिल में आने वाला
रस उन आँखों का है कहने को ज़रा सा पानी
पियूँ ही क्यूँ जो बुरा जानूँ और छुपा के पियूँ