मख़रब-ए-कार हुई जोश में ख़ुद उजलत-ए-कार
पीछे हट जाएगी मंज़िल मुझे मालूम न था
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जितने हुस्न-आबाद में पहोंचे होश-ओ-ख़िरद खो कर पहोंचे
वहशत हम अपनी ब'अद-ए-फ़ना छोड़ जाएँ
नाले मजबूरों के ख़ाली नहीं जाने वाले
न कोई जल्वती न कोई ख़ल्वती न कोई ख़ास था न कोई आम था
इस पार से यूँ डूब के उस पार गए
जिन रातों में नींद उड़ जाती है क्या क़हर की रातें होती हैं
ख़मोश जलने का दिल के कोई गवाह नहीं
मासूम नज़र का भोला-पन ललचा के लुभाना क्या जाने
फेर जो पड़ना था क़िस्मत में वो हस्ब-ए-मामूल पड़ा
किस गुल की बू है दामन-ए-दिल में बसी हुई
जज़्ब-ए-निगाह-ए-शोबदा-गर देखते रहे
हद से टकराती है जो शय वो पलटती है ज़रूर