ख़मोश जलने का दिल के कोई गवाह नहीं
कि शो'ला सुर्ख़ नहीं है धुआँ स्याह नहीं
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आँख से दिल में आने वाला
ख़ाली न अंदलीब का सोज़-ए-नफ़स गया
वअ'दा सच्चा है कि झूटा मुझे मालूम न था
न कोई जल्वती न कोई ख़ल्वती न कोई ख़ास था न कोई आम था
जो दिल रखते हैं सीने में वो काफ़िर हो नहीं सकते
कुछ कहते कहते इशारों में शर्मा के किसी का रह जाना
मोहब्बत वहीं तक है सच्ची मोहब्बत
रस उन आँखों का है कहने को ज़रा सा पानी
वो क़िस्सा-ए-दर्द-आगीं चुप कर दिया था जिस ने
यही इक निबाह की शक्ल है वो जफ़ा करें मैं वफ़ा करूँ
नाले हैं दिलसिताँ तो फिर आहें हैं बर्छियाँ तो फिर
भोले बन कर हाल न पूछ बहते हैं अश्क तो बहने दो