कम जो ठहरे जफ़ा से मेरी वफ़ा
तो ये पासंग है तराज़ू का
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हर नफ़स इक शराब का हो घूँट
वअ'दा सच्चा है कि झूटा मुझे मालूम न था
अयाँ है बे-रुख़ी चितवन से और ग़ुस्सा निगाहों से
दो तुंद हवाओं पर बुनियाद है तूफ़ाँ की
वो क़िस्सा-ए-दर्द-आगीं चुप कर दिया था जिस ने
फिर चाहे तो न आना ओ आन बान वाले
क्यूँ किसी रह-रौ से पूछूँ अपनी मंज़िल का पता
जितने हुस्न-आबाद में पहोंचे होश-ओ-ख़िरद खो कर पहोंचे
तक़दीर पे शाकिर रह कर भी ये कौन कहे तदबीर न कर
नाले हैं दिलसिताँ तो फिर आहें हैं बर्छियाँ तो फिर
कहीं सर पटकते दीवाने कहीं पर झुलसते परवाने
देखें महशर में उन से क्या ठहरे