जज़्ब-ए-निगाह-ए-शोबदा-गर देखते रहे
दुनिया उन्हीं की थी वो जिधर देखे रहे
Habib Jalib
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हम आज खाएँगे इक तीर इम्तिहाँ के लिए
बरसों भटका किया और फिर भी न उन तक पहुँचा
यूँ दूर दूर दिल से हो हो के दिल-नशीं भी
नहीं वो अगली सी रौनक़ दयार-ए-हस्ती की
हमारी नाकामी-ए-वफ़ा ने ज़माने की खोल दी हैं आँखें
हुस्न से शरह हुई इश्क़ के अफ़्साने की
'आरज़ू' जाम लो झिजक कैसी
ख़मोशी मेरी मअनी-ख़ेज़ थी ऐ आरज़ू कितनी
गोरे गोरे चाँद से मुँह पर काली काली आँखें हैं
मोहब्बत वहीं तक है सच्ची मोहब्बत
इस पार से यूँ डूब के उस पार गए
दूर थे होश-ओ-हवास अपने से भी बेगाना था