हम को इतना भी रिहाई की ख़ुशी में नहीं होश
टूटी ज़ंजीर कि ख़ुद पाँव हमारा टूटा
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मासूम नज़र का भोला-पन ललचा के लुभाना क्या जाने
आज बे-आप हो गए हम भी
हुस्न ओ इश्क़ की लाग में अक्सर छेड़ उधर से होती है
होश-ओ-बे-होशी की मंज़िल एक है रस्ते जुदा
है मोहब्बत ऐसी बंधी गिरह जो न एक हाथ से खुल सके
नाम मंसूर का क़िस्मत ने उछाला वर्ना
मिरी निगाह कहाँ दीद-ए-हुस्न-ए-यार कहाँ
क्यूँ किसी रह-रौ से पूछूँ अपनी मंज़िल का पता
हर इक शाम कहती है फिर सुब्ह होगी
ख़ुशबू कहीं छुपी है मोहब्बत के फूल की
ऐ जज़्ब-ए-मोहब्बत तू ही बता क्यूँकर न असर ले दिल ही तो है