हर इक शाम कहती है फिर सुब्ह होगी
अँधेरे में सूरज नज़र आ रहा है
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तू कहता है ख़ालिक़-ए-शर-ओ-ख़ैर नहीं
जितना था सरगर्म-ए-कार उतना ही दिल नाकाम था
पूछा जो उन से चाँद निकलता है किस तरह
मिरे जोश-ए-ग़म की है अजब कहानी
आज बे-आप हो गए हम भी
उस की तो एक दिल-लगी अपना बना के छोड़ दे
नज़र बचा के जो आँसू किए थे मैं ने पाक
आने में झिझक मिलने में हया तुम और कहीं हम और कहीं
मुझे रहने को वो मिला है घर कि जो आफ़तों की है रहगुज़र
कम न थी तेग़ से अदा-ए-ख़िराम
जो बुत है यहाँ अपनी जा एक ही है
फेर जो पड़ना था क़िस्मत में वो हस्ब-ए-मामूल पड़ा