धारे से कभी कश्ती न हटी और सीधी घाट पर आ पहुँची
सब बहते हुए दरियाओं के क्या दो ही किनारे होते हैं
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दिल मुकद्दर है आईना-रू का
हुस्न से शरह हुई इश्क़ के अफ़्साने की
कानों की ग़रज़ कलाम बतलाता है
गँवा के दिल सा गुहर दर्द-ए-सर ख़रीद लिया
दो तुंद हवाओं पर बुनियाद है तूफ़ाँ की
दिल में याद-ए-बुत-ए-बे-पीर लिए बैठा हूँ
फिर चाहे तो न आना ओ आन-बान वाले
हद से टकराती है जो शय वो पलटती है ज़रूर
तस्कीन-ए-दिल का ये क्या क़रीना
किस गुल की बू है दामन-ए-दिल में बसी हुई
वाए ग़ुर्बत कि हुए जिस के लिए ख़ाना-ख़राब
मिसाल-ए-शम्अ अपनी आग में क्या आप जल जाऊँ