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तक़दीर पे शाकिर रह कर भी ये कौन कहे तदबीर न कर - आरज़ू लखनवी कविता - Darsaal

तक़दीर पे शाकिर रह कर भी ये कौन कहे तदबीर न कर

तक़दीर पे शाकिर रह कर भी ये कौन कहे तदबीर न कर

वा बाब-ए-इजाबत हो कि न हो ज़ंजीर हिला ताख़ीर न कर

ग़म बढ़ने दे ऐ दिल और ज़रा जाँच आह की बे-तासीर न कर

है ख़्वाब अधूरा आप अभी बे-समझे ग़लत ताबीर न कर

जब ज़ुल्म का बदला ज़ुल्म हुआ मज़लूम का हक़ कुछ भी न रहा

दे दर्द ही में लज़्ज़त यारब नाले को अता तासीर न कर

हो लाख कमान कड़ी क़ातिल कुछ जज़्ब निशाने में भी है

बाज़ू के बल पे नज़र कर के अंदाज़ा-ए-ज़ख़्म-ए-तीर न कर

अब तक जो निगाहें सीधी हैं मुमकिन है कल ये पलट जाएँ

जो करना हो करे ऐसे में किस सोच में है ताख़ीर न कर

पैमान-ए-मोहब्बत ख़त्म हुआ अब ज़िक्र से उस के फ़ाएदा क्या

मुँह बिखरी कड़ियों के न मिला तय्यार नई ज़ंजीर न कर

उल्फ़त के अहद-ए-मोहकम में बूदे काग़ज़ की ज़मानत क्या

ये दिल से दिल की बातें हैं रख याद फ़क़त तहरीर न कर

हर दिल है हयात का सरमाया हर दिल में जोश मोहब्बत का

तू 'आरज़ू' और कहेगा क्या बस रहने भी दे तक़रीर न कर

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