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क़ुर्बत बढ़ा बढ़ा कर बे-ख़ुद बना रहे हैं - आरज़ू लखनवी कविता - Darsaal

क़ुर्बत बढ़ा बढ़ा कर बे-ख़ुद बना रहे हैं

क़ुर्बत बढ़ा बढ़ा कर बे-ख़ुद बना रहे हैं

मैं दूर हट रहा हूँ वो पास आ रहे हैं

एजाज़-ए-पाक-बाज़ी हैरत में ला रहे हैं

दिल मिल गया है दिल से पहलू जुदा रहे हैं

वो दिल से ग़म भुला कर दिल को लुभा रहे हैं

गुज़रे हुए ज़माने फिर फिर के आ रहे हैं

सीने में ज़ब्त-ए-ग़म से छाला उभर रहा है

शोले को बंद कर के पानी बना रहे हैं

मअ'नी न पूछ ज़ालिम इस उज़्र-ए-बे-गुनह के

अपने को अव्वल दे कर तुझ को बचा रहे हैं

ऐ बे-ख़ुदी कहाँ है जल्दी मिरी ख़बर ले

भूले थे जो ब-मुश्किल फिर याद आ रहे हैं

लें काम ज़ब्त से क्या उल्टा है दिल का फोड़ा

उतना उभर रहा है जितना दबा रहे हैं

फ़ुर्क़त में साज़-ए-राहत सामाँ अज़ाब का है

ठंडी हवा के झोंके क्या जी जला रहे हैं

हैं हुस्न के करिश्मे क्या इंक़लाब-आगीं

ग़म-ख़्वार जो थे कल तक अब ख़ार खा रहे हैं

ख़ुद इन की जुस्तुजू में हम दूर भागे वर्ना

वो कब अलग रहे हैं वो कब जुदा रहे हैं

ले ले के ठंडी साँसें पूछो न हाल देखो

तुम भेद खोलते हो और हम छुपा रहे हैं

देख 'आरज़ू' ये रोना शाना हिला हिला कर

तू आज ख़्वाब में है और वो जगा रहे हैं

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