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मुझ को दिल क़िस्मत ने उस को हुस्न-ए-ग़ारत-गर दिया - आरज़ू लखनवी कविता - Darsaal

मुझ को दिल क़िस्मत ने उस को हुस्न-ए-ग़ारत-गर दिया

मुझ को दिल क़िस्मत ने उस को हुस्न-ए-ग़ारत-गर दिया

चूर कर दे क्यूँ न वो शीशा जिसे पत्थर दिया

उस से तालिब हूँ दियत का आप से मतलब नहीं

जिस ने गर्दन एक को दी एक को ख़ंजर दिया

था मुकाफ़ात-ए-अमल अहबाब का हुस्न-ए-अमल

ये भी ऐसा क़र्ज़ था जो और से ले कर दिया

अब न है फ़िक्र-ए-हिफ़ाज़त और न ज़ीक़-ए-रफ़-ए-कार

देने वाले ने दिया और मेरी ख़्वाहिश भर दिया

गिर्या-ए-बे-इख़्तियार-ए-गम भी था फ़ितरी इलाज

जिस ने थोड़े जोश को हर मर्तबा कम कर दिया

जिस में कैफ़-ए-ग़म नहीं बाज़ आए ऐसे दिल से हम

ये भी दुनिया है कोई मय तो न दी साग़र दिया

'आरज़ू' इक रोज़ ढा देता मुझे मेरा ही ज़ोर

ये भी उस की कारसाज़ी दिल में जिस ने डर दिया

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