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किसी गुमान-ओ-यक़ीं की हद में वो शोख़-ए-पर्दा-नशीं नहीं है - आरज़ू लखनवी कविता - Darsaal

किसी गुमान-ओ-यक़ीं की हद में वो शोख़-ए-पर्दा-नशीं नहीं है

किसी गुमान-ओ-यक़ीं की हद में वो शोख़-ए-पर्दा-नशीं नहीं है

जहाँ न समझो उसी जगह है जहाँ समझ लो वहीं नहीं है

तुम्हारा वअ'दा है कैसा वअ'दा कि जिस का दिल को यक़ीं नहीं है

नगीन-ए-बे-नक़्श तो हज़ारों ये नक़्श है और नगीं नहीं है

तसव्वुरों के फ़रेब उठा कर मुशाहिदा वहम बन रहा है

नज़र ने खाए हैं इतने धोके कि देख कर भी यक़ीं नहीं है

तलव्वुन इक जज़्र-ओ-मद है ख़ुद ही थपेड़ों में आ फँसी है कश्ती

ख़बर है मुद्दत के डूबे दिल की कि आज तक तह-नशीं नहीं है

ये कहती है गर्दिश-ए-ज़माना क़दम थमेंगे न अब किसी जा

है ये भी इक आसमाँ का टुकड़ा तिरी गली की ज़मीं नहीं है

वफ़ा की हामी हमिय्यत उन की हरीफ़-ए-उम्मीद ग़ैरत उन की

निगाहें इक़रार कर रही हैं ज़बाँ पे लेकिन नहीं नहीं है

हुआ जो इक दिल का दाग़ रौशन तो हो गए कुल चराग़ रौशन

ख़याल रौशन दिमाग़ रौशन बस अब अंधेरा कहीं नहीं है

सरिश्क-ए-ख़ूनीं का कुल फ़साना लपेट रखा है इक वरक़ में

निचोड़ने पर लहू न टपके तो आस्तीं आस्तीं नहीं है

हमारी नाकामी-ए-वफ़ा ने ज़माने की खोल दी हैं आँखें

चराग़ कब का बुझा पड़ा है मगर अंधेरा कहीं नहीं है

मुझी पे क्या है नहीं है किस में ये बुत-तराशी ये बुत-परस्ती

अगर न हुस्न-ए-नज़र से देखो तो कोई भी फिर हसीं नहीं है

रह-ए-इताअत में 'आरज़ू' ने क़दम क़दम पे किए हैं सज्दे

जो आप का नक़्श-ए-पा नहीं है वो उस का नक़्श-ए-जबीं नहीं है

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