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अयाँ है बे-रुख़ी चितवन से और ग़ुस्सा निगाहों से - आरज़ू लखनवी कविता - Darsaal

अयाँ है बे-रुख़ी चितवन से और ग़ुस्सा निगाहों से

अयाँ है बे-रुख़ी चितवन से और ग़ुस्सा निगाहों से

पयाम-ए-ख़ामुशी और वो भी दो दो नश्र-गाहों से

वबाल-ए-जाँ है ऐसी ज़िंदगी जिस में तलातुम हो

मिटा लूँ हौसले फिर तौबा कर लूँगा गुनाहों से

फ़ज़ा महदूद कब है ऐ दिल-ए-वहशी फ़लक कैसा

निलाहट है नज़र की देखते हैं जो निगाहों से

हक़ीक़त में निगाहों से कोई मंज़िल नहीं बचती

गुज़रते देखे हैं गोशा-नशीं तक शाह-राहों से

तही-दस्तान-ए-क़िस्मत को न लेना था न देना था

हिसाब-ए-ज़िंदगी क्या है ये पूछो बादशाहों से

हमें तो जलते दिल की रौशनी में आगे बढ़ना है

हटा दो क़ुमक़ुमे बिजली के ना-हमवार राहों से

मिरे नालों के सब शाकी कोई उन को नहीं कहता

खुरचते रहते हैं जो ज़ख़्म-ए-दिल ख़ूनी निगाहों से

पिला दो ज़हर-ए-ग़म दिल को न छोड़े गर हवस-कारी

गुनह वो एक अच्छा जो बचा ले सौ गुनाहों से

हमीं कुछ 'आरज़ू' फेर उन की बातों का समझते हैं

जो हक़-पोशी में सच को झूट करते हैं गवाहों से

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