तू कहता है ख़ालिक़-ए-शर-ओ-ख़ैर नहीं
मैं कहता हूँ ख़ाली हरम-ओ-दैर नहीं
सच है तिरा कहना तो मुझे कुछ नहीं ख़ौफ़
सच है मिरा कहना तो तिरी ख़ैर नहीं
Mohsin Naqvi
Gulzar
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जोश-ए-जुनूँ में वो तिरे वहशी का चीख़ना
भोली बातों पे तेरी दिल को यक़ीं
करम उन का ख़ुद है बढ़ कर मिरी हद्द-ए-इल्तिजा से
कुछ दिन की रौनक़ बरसों का जीना
जो कान लगा कर सुनते हैं क्या जानें रुमूज़ मोहब्बत के
अव्वल-ए-शब वो बज़्म की रौनक़ शम्अ भी थी परवाना भी
हुस्न से शरह हुई इश्क़ के अफ़्साने की
मीर-ए-महफ़िल न हुए गर्मी-ए-महफ़िल तो हुए
नाले मजबूरों के ख़ाली नहीं जाने वाले
आप अपने से बरहमी कैसी
हर टूटे हुए दिल की ढारस है तिरा वअ'दा
किस गुल की बू है दामन-ए-दिल में बसी हुई