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रक़्स-ए-आशुफ़्ता-सरी की कोई तदबीर सही - अर्शी भोपाली कविता - Darsaal

रक़्स-ए-आशुफ़्ता-सरी की कोई तदबीर सही

रक़्स-ए-आशुफ़्ता-सरी की कोई तदबीर सही

लो मिरे पाँव में इक और भी ज़ंजीर सही

इम्तिहाँ इस दिल-ए-पुर-शौक़ का करते रहिए

और इस जुर्म-ए-वफ़ा पर कोई ताज़ीर सही

तान-ओ-दुश्नाम से दीवाने न बाज़ आएँगे

कोई इल्ज़ाम सही तोहमत-ए-तक़सीर सही

हम तो आवारा-ए-सहरा हैं हमें क्या मतलब

उन की महफ़िल में जुनूँ की कोई तौक़ीर सही

हर कोई यूसुफ़-ए-कनआँ तो नहीं बन सकता

मेरा फ़र्दा ही मिरे ख़्वाब की ताबीर सही

क़ाफ़िले कितने ही मंज़िल से भटक जाते हैं

हम मुसाफ़िर न सही हम कोई रह-गीर सही

नारा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम शर्त-ए-जुनूँ क्या मअ'नी

दर्द रुस्वा ही सही इश्क़ जहाँगीर सही

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