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निगाह-ए-शौक़ से कब तक मुक़ाबला करते - अर्शी भोपाली कविता - Darsaal

निगाह-ए-शौक़ से कब तक मुक़ाबला करते

निगाह-ए-शौक़ से कब तक मुक़ाबला करते

वो इल्तिफ़ात न करते तो और क्या करते

ये रस्म-ए-तर्क-ए-मोहब्बत भी हम अदा करते

तेरे बग़ैर मगर ज़िंदगी को क्या करते

ग़ुरूर-ए-हुस्न को मानूस-ए-इल्तिजा करते

वो हम नहीं कि जो ख़ुद-दारियाँ फ़ना करते

किसी की याद ने तड़पा दिया फिर आ के हमें

हुई थी देर न कुछ दिल से मशवरा करते

ये पूछो हुस्न को इल्ज़ाम देने वालों से

जो वो सितम भी न करता तो आप क्या करते

सितम-शिआर अज़ल से है हुस्न की फ़ितरत

जो मैं वफ़ा भी न करता तो वो जफ़ा करते

हमें तो अपनी तबाही की दाद भी न मिली

तिरी नवाज़िश-ए-बेजा का क्या गिला करते

निगाह-ए-नाज़ की मासूमियत अरे तौबा

जो हम फ़रेब न खाते तो और क्या करते

निगाह-ए-लुत्फ़ की तस्कीं का शुक्रिया लेकिन

मता-ए-दर्द को किस दिल से हम जुदा करते

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