मयख़ाने पे छाई है अफ़्सुर्दा-शबी कब से

मयख़ाने पे छाई है अफ़्सुर्दा-शबी कब से

साग़र से गुरेज़ाँ है ख़ुद तिश्ना-लबी कब से

ऐ साया-ए-गेसू के दीवानो बताओ तो

मेआ'र-ए-जुनूँ ठहरी राहत-तलबी कब से

चूसा है लहू जिस ने बरसों मह-ओ-अंजुम का

इंसाँ का मुक़द्दर है वो तीरा-शबी कब से

इक हश्र सा बरपा है ज़िंदाँ से बयाबाँ तक

पाबंद-ए-सलासिल है ईज़ा-तलबी कब से

जिस के लिए साज़ अपना सर फोड़ते फिरते हैं

नग़्मों की वो दौलत है सीने में दबी कब से

जो दार-ओ-रसन को भी ख़ातिर में नहीं लाती

ताज़ीर के क़ाबिल है वो बे-अदबी कब से

फ़ुर्सत ग़म-ए-दौराँ से मिलती ही नहीं 'अरशद'

दिल में लिए फिरते हैं मौज-ए-इनबी कब से

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