फ़ज़ाएँ कैफ़-ए-बहाराँ से जब महकती हैं
फ़ज़ाएँ कैफ़-ए-बहाराँ से जब महकती हैं
तो दिल में चोटें तिरी याद की कसकती हैं
शफ़क़ के रंग भी उन का जवाब ला न सके
किसी के चेहरे पे जो सुर्ख़ियाँ दमकती हैं
जिन्हें तुम्हारा तबस्सुम मिला है वो नज़रें
फ़ज़ा में नूर के नग़्मे बिखेर सकती हैं
कभी कभी तो सितारों के नर्म साए में
किसी के जिस्म की परछाइयाँ चमकती हैं
क़दम क़दम पे बिछाती है जाल तीरा-शबी
नफ़स नफ़स पे नई बिजलियाँ चमकती हैं
जहाँ वो आँखें मिरा इंतिज़ार करती थीं
अब उन दरीचों से मायूसियाँ टपकती हैं
सुकूत-ए-शब में तिरे इंतिज़ार का आलम
कि जैसे दूर कहीं पायलें खनकती हैं
उन्हीं का नाम कहीं मस्ती-ए-बहार न हो
कली के सीने में जो निकहतें धड़कती हैं
हो इंतिज़ार किसी का मगर मिरी नज़रें
न जाने क्यूँ तिरी आमद की राह तकती हैं
जब उन के आने की उम्मीद ही नहीं 'अरशद'
तो फिर निगाहें ख़लाओं में क्यूँ भटकती हैं
(773) Peoples Rate This