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दिलों से यास-ओ-अलम के नक़ाब उतारो तो - अरशद सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

दिलों से यास-ओ-अलम के नक़ाब उतारो तो

दिलों से यास-ओ-अलम के नक़ाब उतारो तो

सहर भी रूप दिखाएगी शब गुज़ारो तो

फ़ज़ा के सीने में नग़्मों के लय उतारो तो

उसी अदा से ज़रा फिर मुझे पुकारो तो

मिरे ग़मों के धुँदलके भी छट ही जाएँगे

तुम अपने गेसु-ए-शब-रंग को सँवारो तो

कहाँ गए मुझे तारीकियों में उलझा कर

हयात-ए-रफ़्ता के लम्हो ज़रा पुकारो तो

ख़िज़ाँ-रसीदा फ़ज़ाओं को रोओगे कब तक

बहार गोश-बर-आवाज़ है पुकारो तो

फिर इस के बा'द सहर ही सहर है ऐ 'अरशद'

रुख़-ए-हयात के तेवर ज़रा निखारो तो

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