तलाश-ए-ला-मकाँ में उड़ रहा हूँ
मगर मुझ से मकाँ लिपटा हुआ है
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हम जुनूँ पेशा कि रहते थे तिरी ज़ात में गुम
हिसार-ए-ग़ैर में रहता है ये मकान-ए-वजूद
नए मौसम की बशारत हैं हम
मैं तिरे शहर से गुज़रा हूँ बगूले की तरह
मैं ख़ाक छानता हूँ आफ़्ताब देखता हूँ
अपना क्या है कि रहे या न रहे