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ख़ुदी के ज़ो'म में ऐसा वो मुब्तला हुआ है - अरशद महमूद अरशद कविता - Darsaal

ख़ुदी के ज़ो'म में ऐसा वो मुब्तला हुआ है

ख़ुदी के ज़ो'म में ऐसा वो मुब्तला हुआ है

जो आदमी भी नहीं था वो अब ख़ुदा हुआ है

वो कह रहा था बुझाएगा प्यास सहरा की

मिरा इक अब्र के टुकड़े से राब्ता हुआ है

तुम्हारा तर्ज़-ए-बयाँ ख़ूब है मगर साहब

ये क़िस्सा मैं ने ज़रा मुख़्तलिफ़ सुना हुआ है

ये मिट्टी पाँव मिरे छोड़ती नहीं वर्ना

फ़लक का रास्ता भी सामने पड़ा हुआ है

उसी के हाथ पे बैअ'त मैं कर के आया हूँ

जो बूढ़ा पेड़ कड़ी धूप में खड़ा हुआ है

ख़िराज माँगता है मुझ से ये बदन मेरा

कि लौह-ए-दिल पे तिरा नाम भी लिखा हुआ है

वो मुझ को देख के रस्ता बदल गया 'अरशद'

ज़रा सी देर में उस को ये जाने क्या हुआ है

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